Thursday, June 12, 2025

Why does God's / भगवान की माया, भगवान के शरणागत को भी क्यों परेशान करती है

                  भगवान की माया, भगवान के शरणागत को भी क्यों परेशान करती है

प्रस्तावना:
हमारे सनातन धर्म में "माया" को अत्यंत रहस्यमयी और अद्भुत शक्ति माना गया है। यह वही शक्ति है, जिससे यह समस्त सृष्टि निर्मित हुई है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है — "मम माया दैवी हि एषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।" अर्थात् यह मेरी दैवी माया अत्यंत कठिनाई से पार की जा सकती है। परंतु जब कोई व्यक्ति भगवान की शरण में आ जाता है, तब भी उसके जीवन में दुख, परेशानी, कठिनाइयाँ क्यों आती हैं? क्या भगवान की शरण में आने के बावजूद माया उस पर प्रभाव डाल सकती है? इस प्रश्न का उत्तर अत्यंत गूढ़ और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से समझने योग्य है।


1. माया क्या है?

"माया" शब्द का अर्थ होता है — "जो है नहीं, पर प्रतीत होता है।" यह ब्रह्मा, विष्णु, महेश की त्रिगुणात्मक शक्ति है, जो सत्व, रज और तम गुणों के रूप में कार्य करती है। यह शक्ति जीव को संसार की विभिन्न लीलाओं में उलझाकर उसे भगवान से दूर रखती है। यह माया एक पर्दा है जो आत्मा और परमात्मा के बीच आ जाता है।

भगवत गीता में भगवान स्वयं कहते हैं:

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।
– गीता 7.14

अर्थात् यह मेरी दैवी त्रिगुणमयी माया अत्यंत कठिनाई से पार की जा सकती है, परंतु जो मेरी शरण में आते हैं, वे इस माया को पार कर लेते हैं।


2. भगवान के शरणागत कौन हैं?

"शरणागत" वह होता है जो अपने जीवन को पूरी तरह भगवान के हाथों सौंप देता है। जिसका कोई अपना अहंकार नहीं बचा, जिसने पूरी तरह से ईश्वर को स्वीकार कर लिया। शरणागति के छह लक्षण होते हैं:

  1. अनुकूलता स्वीकार – जो भी भगवान करें, उसमें सकारात्मकता देखना।

  2. प्रतिकूलता का त्याग – जो भगवान को अप्रिय है, उसका त्याग।

  3. भगवान में पूर्ण विश्वास – किसी अन्य सहारे पर निर्भर न होना।

  4. भगवान को रक्षक मानना – संकट में केवल भगवान को पुकारना।

  5. समर्पण – मन, वचन, कर्म से पूर्ण समर्पण।

  6. दीनभाव – स्वयं को तुच्छ मानना और ईश्वर को ही सर्वश्रेष्ठ समझना।


3. जब कोई भगवान का हो गया, तो फिर माया क्यों?

यह सबसे जटिल और रहस्यमयी प्रश्न है। जब कोई व्यक्ति सच्चे अर्थों में भगवान की शरण में आता है, तब भी जीवन में कष्ट क्यों आते हैं?

A. शरणागत की परीक्षा:

भगवान कभी-कभी अपने भक्तों की परीक्षा लेते हैं — उनकी श्रद्धा, विश्वास, धैर्य और समर्पण को परखने के लिए। यह परीक्षा ही आगे चलकर उनको और ऊँचे स्तर पर ले जाती है।

उदाहरण:
प्रह्लाद: विष्णु भक्त प्रह्लाद को उनके अपने पिता हिरण्यकशिपु ने अनेक यातनाएँ दीं, फिर भी वह डिगा नहीं।
द्रौपदी: पांच पतियों के होते हुए भी उसका चीरहरण हुआ, पर उसने अंतिम क्षण तक भगवान को पुकारा।
मीरा बाई: विषपान करवाया गया, कांटों की सेज दी गई, परंतु वे कृष्ण की भक्ति में अडिग रहीं।

इस प्रकार की परेशानियाँ भगवान के शरणागत के आत्मबल, भक्ति, और विश्वास को मजबूत करने का माध्यम बनती हैं।


B. पूर्व कर्मों का फल:

जब कोई भक्त भगवान की शरण में आता है, तो उसका अतीत अपने साथ अनेक कर्मों की गठरी लेकर आता है। शरणागत का मतलब यह नहीं कि पुराने पापों का फल उसे नहीं मिलेगा। भगवान कृपा कर सकते हैं, लेकिन कर्मफल का संतुलन भी जरूरी है।

गीता में भगवान ने कहा:

न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्
अर्थात् — कोई भी व्यक्ति कर्म किए बिना नहीं रह सकता। और किए गए कर्म का फल तो भोगना ही पड़ेगा, चाहे वह भगवान का भक्त ही क्यों न हो।

कई बार भगवान भक्त के पुराने पापों का संक्षिप्त और तेज़ नाश करते हैं, ताकि आगे का जीवन शुद्ध हो जाए। यह प्रक्रिया पीड़ा देने वाली तो होती है, परंतु अंततः कल्याणकारी होती है।


C. माया से मुक्ति की प्रक्रिया:

भगवान के शरणागत को माया से छुटकारा दिलाना ही भगवान का उद्देश्य होता है। माया के माध्यम से ही वे शरणागत को संसार से वैराग्य देते हैं। जब तक संसार प्रिय लगता रहेगा, तब तक जीव पूरी तरह भगवान का नहीं हो सकता।

भगवान श्रीराम ने कहा था:

"मोहि माया तजि जो नर आवा।
सो मम प्रिय जग ममहि भावा।।"

अर्थात् जो व्यक्ति माया को त्यागकर मेरी शरण में आता है, वह मुझे अत्यंत प्रिय होता है। इसलिए माया के झंझावातों से ही भगवान अपने भक्तों का शुद्धिकरण करते हैं।


D. दूसरों को प्रेरणा देना:

कभी-कभी भगवान के शरणागत को कष्ट इसलिए भी आते हैं ताकि वह समाज के लिए प्रेरणा बन सकें। जब एक सच्चा भक्त संकट में धैर्य और विश्वास से खड़ा रहता है, तो वह अन्य लोगों के लिए आदर्श बनता है।

उदाहरण:
संत तुकाराम, नामदेव, कबीर — इन्होंने जीवन में अनेक कठिनाइयाँ झेली, परंतु उनके उपदेश आज लाखों को राह दिखा रहे हैं।


4. शरणागत के साथ माया का व्यवहार कैसे बदलता है?

जब कोई भगवान का सच्चा भक्त होता है, तो माया भी उसकी परीक्षा तो लेती है, परंतु वह नष्ट नहीं कर सकती। यह भी भगवान की योजना का हिस्सा होता है।

श्रीमद्भागवत में कहा गया है:

"भक्तों पर माया का पूरा अधिकार नहीं रहता। वह उनकी परीक्षा ले सकती है, पर उन्हें डुबो नहीं सकती।"

माया रूपी समस्याएँ शरणागत के लिए तप बन जाती हैं, जिससे वह और अधिक चमकते हैं।


5. भगवान क्यों चाहते हैं कि भक्त संघर्ष करे?

भगवान अपने भक्तों को फूलों की सेज नहीं, कांटों की राह इसलिए देते हैं क्योंकि:

  • भक्ति में गहराई आती है।

  • अहंकार समाप्त होता है।

  • सच्चा वैराग्य जन्म लेता है।

  • मन संसार से हटकर परमात्मा की ओर जाता है।

  • भक्त दूसरों की पीड़ा समझता है।

यह संघर्ष ही आत्मा को परिपक्व बनाते हैं।


6. भक्त की पीड़ा और भगवान की करुणा:

भक्त जब रोता है, तो भगवान भी विचलित होते हैं। वे तुरंत सहायता न करें, इसका अर्थ यह नहीं कि वे सुन नहीं रहे। वे सही समय का चयन करते हैं, ताकि जो फल भक्त को मिलना चाहिए, वह संपूर्ण रूप से कल्याणकारी हो।

तुलसीदासजी लिखते हैं:

"बिलंब होय परन्तु प्रभु आवत,
भक्त बिपति देखी रहि न जात।"

अर्थात् भगवान आने में देर कर सकते हैं, परंतु भक्त की पीड़ा देखकर वे रह नहीं सकते।


7. माया का अंतिम उद्देश्य क्या है?

माया का उद्देश्य केवल जीव को भगवान से दूर रखना नहीं, बल्कि जब वह देखती है कि जीव सच्चा भक्ति मार्ग पकड़ चुका है, तो वह स्वयं मार्ग से हट जाती है।

महापुरुष कहते हैं:

"माया की सबसे बड़ी कृपा है — जब वह स्वयं को त्यागने पर मजबूर कर दे।"

इसलिए जब माया भक्त को परेशान करती है, तब वह उसके कल्याण के लिए ऐसा करती है — जैसे कोई माँ कड़वी औषधि बच्चे को देती है।


8. निष्कर्ष:

भगवान के शरणागत को माया परेशान करती है, परंतु उसका उद्देश्य नाश करना नहीं, बल्कि शुद्धिकरण, परिपक्वता और भक्त की आत्मिक उन्नति होता है। वह परीक्षा भी होती है, तपस्या भी, और प्रेम की गहराई का प्रमाण भी।

जब भक्त इस माया को भगवान की इच्छा मानकर सहर्ष स्वीकार करता है, तब वही कष्ट, वही पीड़ा, वही संघर्ष उसे प्रभु के और निकट ले जाता है। अंततः वह माया से परे उठकर भगवद-प्रेम में स्थित हो जाता है।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था:

"मायामेतां तरन्ति ते।"
जो मेरी शरण में आता है, वह इस माया को पार कर जाता है।

इसलिए, संकट आने पर घबराएँ नहीं, बल्कि यह मान लें कि — यह माया मुझे भगवान की ओर और अधिक आकर्षित करने का एक माध्यम है।


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