धर्म क्या है: दान करना, माता-पिता की सेवा करना या भगवान का नाम जपना?
जीवन के मूल प्रश्नों में से एक है — "क्या धर्म केवल दान करना है? क्या माता-पिता की सेवा धर्म है? या फिर ईश्वर का नाम लेना ही धर्म है?"
यह सवाल न केवल जिज्ञासा का प्रतीक है बल्कि आत्मा की गहरी प्यास का भी प्रमाण है।
आइए इस विषय को गहराई से समझें, ताकि हम जान सकें कि सच्चा धर्म वास्तव में क्या है।
धर्म का मूल स्वरूप
'धर्म' शब्द संस्कृत धातु "धृ" से निकला है, जिसका अर्थ है — धारण करना, संभालना या टिकाए रखना।
धर्म वह शक्ति है जो समाज को, व्यक्तित्व को और सृष्टि को एक साथ बांधे रखती है।
धर्म कोई एक काम नहीं, बल्कि एक समग्र जीवनदृष्टि है — जिसमें सेवा, करुणा, भक्ति, प्रेम और सत्य समाहित हैं।
सच्चे धर्म की पहचान उसके परिणामों से होती है — क्या वह भीतर शांति लाता है? क्या वह दूसरों के जीवन में आशा का संचार करता है?
क्या दान करना ही धर्म है?
दान, यानी किसी ज़रूरतमंद को बिना किसी अपेक्षा के कुछ देना, भारतीय संस्कृति का एक अत्यंत महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है।
पुराणों में दान को पुण्य का कार्य बताया गया है। परंतु, प्रश्न यह है कि क्या केवल दान कर देना धर्म का पर्याय है?
दान के विभिन्न प्रकार:
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अन्नदान: भूखे को भोजन देना।
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विद्यादान: अज्ञानी को ज्ञान देना।
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अभयदान: भयभीत को निर्भय करना।
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औषधिदान: बीमार को औषधि देना।
दान तभी सच्चा धर्म बनता है जब उसमें स्वार्थ की गंध न हो।
अगर हम दान कर अपनी प्रसिद्धि चाहते हैं, दूसरों पर एहसान जताना चाहते हैं या अहंकार बढ़ाते हैं, तो वह दान धर्म नहीं बनता, केवल कर्म बनकर रह जाता है।
भगवद्गीता में कहा गया है —
"यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।"
अर्थात् — जो भी तुम दान करते हो, वह भगवान को अर्पण भावना से करो। तभी वह धर्म कहलाएगा।
माता-पिता की सेवा: धर्म का मूल
"मातृ देवो भव। पितृ देवो भव।"
ऋग्वेद से लिया गया यह मंत्र हमारे जीवन की धुरी है। माता-पिता का स्थान भगवान से भी ऊपर बताया गया है।
माता-पिता ने न केवल हमें जन्म दिया, अपितु असंख्य कठिनाइयों को सहकर हमारा पालन-पोषण किया। उनकी सेवा करना केवल कर्तव्य नहीं, बल्कि महान धर्म भी है।
क्यों माता-पिता की सेवा को धर्म माना गया?
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वे सृजनकर्ता हैं — हमारे इस शरीर का कारण।
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वे गुरु हैं — प्रारंभिक शिक्षा हमें माता-पिता से ही मिलती है।
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वे रक्षक हैं — हर संकट में सुरक्षा प्रदान करते हैं।
महाभारत में भी युधिष्ठिर ने माता-पिता की सेवा को सर्वोच्च धर्म बताया है।
अगर हम तीर्थों पर जाकर पुण्य कमाना चाहते हैं, परंतु घर में वृद्ध माता-पिता उपेक्षित हैं, तो हमारा तीर्थयात्रा भी निष्फल हो सकती है।
माता-पिता की सेवा में जो प्रेम, करुणा और समर्पण होता है, वही धर्म की सच्ची भावना है।
भगवान का नाम जपना: क्या यही सबसे बड़ा धर्म है?
"हरि नाम बिना और न कोई आधार।"
संत तुलसीदास जी ने यह बात बार-बार अपने दोहों में कही है।
भगवान का नाम लेना यानी अपनी चेतना को परमचेतना से जोड़ना।
नाम जप आत्मा को शुद्ध करता है, मन को शांत करता है और जीवन में दिव्यता का संचार करता है।
नाम जप के लाभ:
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मन की चंचलता समाप्त होती है।
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कष्टों का सामना धैर्यपूर्वक करने की शक्ति मिलती है।
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जीवन में विनम्रता और करुणा का उदय होता है।
परंतु, केवल माला फेरने से नहीं, भाव से भगवान का नाम लेना आवश्यक है।
अगर नाम जप करते हुए भी हमारे मन में द्वेष, घृणा, अहंकार भरा हो, तो वह जप मात्र यंत्रवत बनकर रह जाएगा।
नाम जप का धर्म तभी पूर्ण होता है जब उसके साथ आचरण में भी शुद्धता आती है।
तीनों का अद्भुत समन्वय ही सच्चा धर्म
अब प्रश्न उठता है — इन तीनों में से किसे धर्म कहा जाए?
उत्तर सरल है — जब ये तीनों एक साथ हमारे जीवन में समाहित होते हैं, तभी सच्चा धर्म प्रकट होता है।
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सेवा बिना भक्ति अधूरी है।
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भक्ति बिना सेवा निष्प्रभावी है।
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दान बिना करुणा निर्जीव है।
रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है:
"परहित सरिस धर्म नहिं भाई।
परपीड़ा सम नहिं अधमाई।।"
अर्थात् — दूसरों के हित से बड़ा कोई धर्म नहीं और दूसरों को पीड़ा देने से बढ़कर कोई अधर्म नहीं।
इसलिए,
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जब हम दान करते हैं — तो वह सेवा है।
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जब हम माता-पिता की सेवा करते हैं — तो वह भक्ति है।
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जब हम भगवान का नाम लेते हैं — तो वह आत्मा की पवित्रता है।
तीनों का समन्वय हमें संपूर्ण मानव बनाता है।
केवल एक कार्य करने से धर्म की सम्पूर्णता नहीं आती; बल्कि इन सभी गुणों का समावेश हमारे आचरण में होना चाहिए।
आधुनिक जीवन में धर्म का वास्तविक अर्थ
आज के दौर में धर्म को अक्सर केवल पूजा-पाठ या बाहरी दिखावे तक सीमित कर दिया गया है।
परंतु धर्म का वास्तविक अर्थ है — जीवन को सत्य, प्रेम, करुणा और सेवा के साथ जीना।
धर्म का कोई एक रूप नहीं है, यह जीवन के हर पहलू में झलकता है —
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जब आप ईमानदारी से काम करते हैं, तो वह भी धर्म है।
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जब आप किसी जरूरतमंद की मदद करते हैं, तो वह भी धर्म है।
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जब आप अपने परिवार के लिए समर्पित होते हैं, तो वह भी धर्म है।
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जब आप अपने भीतर के विकारों से लड़ते हैं, तो वह भी धर्म है।
धर्म केवल मंदिर, मस्जिद, चर्च या गुरुद्वारा में नहीं है,
धर्म हमारे व्यवहार, विचार और दृष्टिकोण में है।
निष्कर्ष: सच्चा धर्म क्या है?
सच्चा धर्म वह है — जो भीतर से बाहर तक प्रेम का विस्तार करे।
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दान करना — बाहर का कार्य है, परंतु उसमें आत्मा का प्रेम होना चाहिए।
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माता-पिता की सेवा करना — घर के भीतर धर्म है, जो कृतज्ञता से जुड़ा है।
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भगवान का नाम लेना — अंतरात्मा का कार्य है, जो आत्मा को परमात्मा से जोड़ता है।
यदि ये तीनों कार्य प्रेम, भक्ति और निष्काम भाव से किए जाएं, तो वही सच्चा धर्म है।
अगर इनमें अहंकार, स्वार्थ या दिखावा आ जाए, तो धर्म का स्वरूप विकृत हो जाता है।
इसलिए, जीवन में हर दिन, हर पल इन तीनों को साधने का प्रयास करें।
दान करें — करुणा से।
सेवा करें — समर्पण से।
भक्ति करें — प्रेम से।
तभी आप पाएंगे कि धर्म कोई बाहरी अनुष्ठान नहीं, बल्कि आत्मा का सहज प्रवाह है — जो हर श्वास के साथ आपको ईश्वर के समीप ले जाता है।
शुभकामनाएं!
आपका जीवन प्रेम, सेवा और भक्ति के पथ पर सदैव अग्रसर रहे।
यही सच्चा धर्म है।
🌸🙏
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